
गौतम नगर आश्रम में साप्ताहिक सत्संग कार्यक्रम का आयोजन किया गया।
होशियारपुर- दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान द्वारा गौतम नगर आश्रम में साप्ताहिक सत्संग कार्यक्रम का आयोजन किया गया। जिसमें गुरुदेव श्री आशुतोष महाराज जी की प्रेरणा को गुरु भक्तों तक पहुंचाया गया तथा उस पर अडिग रहने के लिए प्रेरित किया गया। चर्चा के दौरान गुरु महाराज जी की शिष्या साध्वी मीमांसा भारती जी ने कहा कि नरेन्द्र विवेकानंद, मुकुंद योगानंद, मीरा भक्त मीरा बाई तथा भाई लहना श्री गुरु अंगद देव जी को बनाने वाला कोई और नहीं बल्कि गुरु ही है।
होशियारपुर- दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान द्वारा गौतम नगर आश्रम में साप्ताहिक सत्संग कार्यक्रम का आयोजन किया गया। जिसमें गुरुदेव श्री आशुतोष महाराज जी की प्रेरणा को गुरु भक्तों तक पहुंचाया गया तथा उस पर अडिग रहने के लिए प्रेरित किया गया। चर्चा के दौरान गुरु महाराज जी की शिष्या साध्वी मीमांसा भारती जी ने कहा कि नरेन्द्र विवेकानंद, मुकुंद योगानंद, मीरा भक्त मीरा बाई तथा भाई लहना श्री गुरु अंगद देव जी को बनाने वाला कोई और नहीं बल्कि गुरु ही है।
गुरु एक ऐसा शिल्पकार है जो हर मनुष्य को गढ़ने में माहिर है। वह एक नाविक है जो अपने शिष्य की जीवन नौका को जीवन सागर में इतनी कुशलता से चलाता है कि वह अशांत, उफनती तथा प्रचंड लहरों पर भी विजय प्राप्त कर अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेती है। गुरु एक शिल्पकार है, जो परीक्षाओं के आघात, परिस्थितियों की छेनी और संघर्ष के हथौड़ों से हिलकर भी उसे बिखरने नहीं देता।
वह एक कुशल चित्रकार है, जो जीवन के नीरस चित्र में भक्ति के रंगों की अमिट प्रतिबिम्ब बिखेरता है। वह एक रंगरेज है, जो शिष्य के सारे दाग मिटा देता है, उसे उबलते पानी की तरह संघर्ष की परिस्थितियों से गुजारता है और उसे भक्ति के गहरे रंग में रंग देता है। यह वह रंग है, जो चुम्बक की तरह है- एक बार चढ़ जाए तो कभी उतरता नहीं। गुरु एक पारस है, जो अपने शिष्य को शुद्ध सोने का रूप देता है।
लेकिन जिस तरह सोने को शुद्ध करने के लिए आग में तपना पड़ता है, उसी तरह शिष्य को भी असाधारण परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है। गुरु एक ऐसा कुम्हार है, जो "अंदर हाथ को सहारा देना, बाहर से वार करना" के सूत्र के अनुसार शिष्य को आकार देता है और उसे भक्ति के मार्ग पर दृढ़ बनाता है।
इन्हीं कुशल हाथों में शिष्य का जीवन आकार लेता है और वह प्रभु के दर्शन कर शाश्वत आनंद से समृद्ध होता है - लेकिन शर्त यह है कि उस शिष्य में समर्पण हो। गुरु-शिष्य का पवित्र रिश्ता समर्पण की नींव पर ही बनता है। जितनी गहरी नींव होगी, रिश्ता भी उतना ही गहरा होगा। समर्पण की सर्वोच्च भावनाओं को प्राप्त करने के लिए शिष्य को अपने भीतर एक महान युद्ध लड़ना पड़ता है।
उसे व्यर्थ जाने वाली हर सांस में ध्यान को विसर्जित करना पड़ता है। बिखरे हुए और इच्छाओं की ओर भागने वाले विचारों को बार-बार वापस खींचकर गुरु के चरणों में केंद्रित करना पड़ता है। इस आध्यात्मिक संघर्ष के माध्यम से शिष्य का अहंकार धीरे-धीरे जलने लगता है और वह धीरे-धीरे गुरु के साथ एक हो जाता है, गुरु के चरणों में पूरी तरह से समर्पित हो जाता है और अपने आध्यात्मिक विकास की यात्रा पर निकल पड़ता है।
