
महाकुंभ 2025: आस्था, राजनीति और हमारी असली लड़ाई
महाकुंभ—यह सिर्फ एक आयोजन नहीं, बल्कि हमारे आत्मा की गहराई में बसा एक पवित्र पर्व है। एक ऐसा आयोजन जिसमें हर हिंदू के हृदय की धड़कन गंगा की लहरों से जुड़ जाती है, हर मनुष्य की आत्मा शिव की भव्यता में लीन होती है। यह महाकुंभ हमारे लिए एक ऐतिहासिक अवसर है—कभी यह सिर्फ आस्था का आयोजन था, लेकिन अब यह राजनीति और तमाम भ्रामक मुद्दों का हिस्सा बन गया है।
महाकुंभ—यह सिर्फ एक आयोजन नहीं, बल्कि हमारे आत्मा की गहराई में बसा एक पवित्र पर्व है। एक ऐसा आयोजन जिसमें हर हिंदू के हृदय की धड़कन गंगा की लहरों से जुड़ जाती है, हर मनुष्य की आत्मा शिव की भव्यता में लीन होती है। यह महाकुंभ हमारे लिए एक ऐतिहासिक अवसर है—कभी यह सिर्फ आस्था का आयोजन था, लेकिन अब यह राजनीति और तमाम भ्रामक मुद्दों का हिस्सा बन गया है।
आप मुझे कटर सनातनी कह सकते हैं, और मैं गर्व से यह स्वीकार करता हूँ। जब हमारी धर्म और संस्कृति को बचाने की बात आती है, तो मैं किसी भी कीमत पर समझौता नहीं करता। हम भारतीयों ने हजारों सालों तक अपनी सनातन संस्कृति की रक्षा की है, और आज भी हम उसे बचाए रखने के लिए लड़ रहे हैं। फिर भी, कुछ लोगों के लिए ये आयोजन केवल एक राजनैतिक कूटनीति बनकर रह गए हैं—सिर्फ दिखावा, फोटो-ऑप और प्रचार बन चुके हैं।
पुरानी सरकारों का एक और नया युग
अतीत में, सरकारें हिंदू परंपराओं की अहमियत को स्वीकारने में संकोच करती थीं। त्योहारों को नजरअंदाज किया जाता था, या फिर इस तरह मनाया जाता था जैसे किसी तरह माफी मांगनी हो। नेता हमेशा एक सुरक्षित दूरी बनाए रखते थे—क्योंकि किसी भी चीज़ को ज़्यादा हिंदू होने से "समावेशी" की छवि पर असर पड़ सकता था।
लेकिन आज? अब तो हालात बदल गए हैं! अब महाकुंभ सिर्फ एक उत्सव नहीं है—यह राजनीतिक बयान बन चुका है, एक आर्थिक अवसर, और निश्चित तौर पर प्रचार का आयोजन। नेता मंचों पर आते हैं, दुनिया भर में इसकी चर्चा होती है, और हर कोई इसका हिस्सा बनता है।
लेकिन इसी में एक अजीब सा सवाल उठता है—क्या यही समय नहीं है, जब हर किसी को जगा कर यह पूछा जाए कि क्या सिर्फ धार्मिक आयोजन ही काफी है?
महंगाई, बेरोज़गारी और एक कमजोर राष्ट्र
गंगा में डुबकी लगाने के बाद, हमारे गरीब भाई-बहन घर लौटकर अपने बढ़े हुए राशन के दाम और बिजली बिलों से जूझते हैं। रोजगार के अवसर नगण्य हैं, और जो लोग काम कर रहे हैं, उनके लिए भी सैलरी उसी पुराने स्तर पर है, जबकि महंगाई बढ़ती जा रही है। हमारी मध्यवर्गीय जनता—जो इस देश की रीढ़ है—हर रोज टैक्स के बोझ तले दबती जा रही है, लेकिन क्या किसी ने कभी यह सवाल पूछा कि इसके बावजूद हमारी सरकार हमें क्यों छोड़ देती है?
क्या हम केवल यह महाकुंभ और आस्था के नाम पर संतुष्ट हो सकते हैं? क्या हमें हर दिन खड़ी होने वाली समस्याओं का समाधान नहीं चाहिए?
मुझे गर्व है अपने सनातन धर्म पर
हाँ, मुझे गर्व है कि आज हमारी सरकार हिंदू धर्म को सम्मान दे रही है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि हम अपनी आँखों में पट्टी बांधकर बैठ जाएं। हम केवल धार्मिक आयोजनों के नाम पर खुश नहीं हो सकते। अगर हम यही करते रहे, तो एक दिन हमारी आस्था और धार्मिक पहचान सिर्फ राजनीतिक हथियार बनकर रह जाएगी।
मैं हिंदू हूँ, और मुझे इस पर गर्व है—हमारा सनातन धर्म कभी किसी से कम नहीं था, और न कभी होगा। आस्था और धर्म हमारे जीवन का आधार हैं, लेकिन क्या सिर्फ इन्हीं चीजों से हम अपना भविष्य सुरक्षित कर सकते हैं? जब तक हम अपने देश के आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर ध्यान नहीं देंगे, तब तक महाकुंभ जैसे आयोजनों से हमें क्या मिलेगा?
समाज की आवाज़ उठाने का वक्त
समाज में हो रहे अर्थव्यवस्था के टूटते धागों, आत्मनिर्भर भारत के नाम पर बने भ्रम, और बेरोज़गारी के बढ़ते आंकड़ों को अब अनदेखा करना किसी के लिए भी मुमकिन नहीं। हम हिंदू हैं, हम अद्भुत संस्कृति के ध्वजवाहक हैं, लेकिन क्या सिर्फ संस्कृति से पेट भरने वाला भारत होगा? क्या हम केवल धार्मिक उत्सवों और उत्साह में खोकर अपनी वास्तविक समस्याओं को नजरअंदाज कर सकते हैं?
आज, जब हमारा देश गंगा में डुबकी लगा रहा है, तो क्या हम ध्यान केंद्रित करके अपनी समस्याओं का समाधान भी खोज सकते हैं? क्या अब समय नहीं आ गया है, जब हम आर्थिक वृद्धि, रोजगार और न्याय की बात करें, न कि सिर्फ धार्मिक आयोजनों की महत्वता पर बात करें?
कृपया ध्यान दें, हम केवल धर्म और आस्था में जीने वाले लोग नहीं हैं—हम समाज, राजनीति और आर्थिक न्याय की भी बातें करते हैं, क्योंकि समाज की प्रगति और धर्म की आस्था दोनों ही एक साथ बढ़ने चाहिए।
जय हिन्द! 🚩
चंदन शर्मा
